Pen Name : Navaa
Mumbai India | 17th July 1967
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Navin, a Company Secretary by profession, is a reputed Shayar. He is known for shayari with strong expressions and fresh perspective. A favored shayar of Mushairas and Nashists, Navin’s shayari is not limited by subjects. An astute observer of life, Navin shayari envelopes philosophy, spirituality, human relations, feelings…. and expresses them in his shayari in such a unique way that it leaves the listeners and readers surprised.
Navin is also respected throughout the poetic world for his work on promoting young poetic talent through Inshaad Foundation, a company formed by him and looked up to by young poets throughout India for giving them that eluding opportunity which will showcase their talent to the world.
घर में कुछ और इज़ाफ़ा हुआ तामीर के बा’द।
एक दीवार बनी थी तेरी तस्वीर के बा’द।
ख़्वाब लगता हूँ तो फिर देख मुझे, लुत्फ़ उठा,
मैं दिखाई नहीं दूँगा तुझे ताबीर के बा’द।
कुछ घड़ी रख दे कहीं दूर ज़रा लौह-ओ-क़लम,
आलम-ए-वज्द रहेगा नहीं तहरीर के बाद।
जंग के बा’द यहाँ अम्न भी तो आएगा,
हल चलाना भी सिखाना मुझे शमशीर के बा’द।
ध्यान मेरा टँगा है खूँटी पर।
जाने क्या क्या टँगा है खूँटी पर।
नींद आने पर आँख पहनेगी,
वो जो सपना टँगा है खूँटी पर।
धूप की राह देखता हूँ मैं,
मेरा साया टँगा है खूँटी पर।
एक बस्ता टँगा है एल्बम का,
इक ज़माना टँगा है खूँटी पर।
उसके चेहरे पे एक खूँटी है,
और मुखौटा टँगा है खूँटी पर।
तुमने वादे को टाँग कर रक्खा,
अब भरोसा टँगा है खूँटी पर।
काम खूँटी से क्या उतारोगे,
जब इरादा टँगा है खूँटी पर।
याद खूँटी है वक़्त पैराहन,
जो उतारा टँगा है खूँटी पर!
नमी हो जिसकी आँखों में वो बंजर हो नहीं सकता।
जिसे मिट्टी से निस्बत हो वो पत्थर हो नहीं सकता।
वो साहिल हो नहीं सकता तलातुम का हो जिसको डर,
जो साहिल से न टकराए समुंदर हो नहीं सकता।
न छेडे बादबाँ को जो न ही पतवार से उलझे,
किसी कश्ती को वो तूफ़ाँ मयस्सर हो नहीं सकता।
वो फिर इक लम्स से, ख़ुश्बू से या आहट से होता है,
जो जादू सिर्फ़ नज़रों से उजागर हो नहीं सकता।
सुकूँ हो, प्यार हो, या फिर वो चाहे ख़ुद ख़ुदा ही हो,
अगर भीतर नहीं है तो वो बाहर हो नहीं सकता।
ज़माने भर की लाशों पर भी हो जाए खड़ी नफ़रत,
पर उसका क़द मोहब्बत के बराबर हो नहीं सकता।
जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया।
वहाँ हमारी ज़बाँ ने सुख़न उतार दिया।
न जाने अब के ये कैसी बहार आई है,
गुलों के जिस्मों से जिसने चमन उतार दिया।
उसी ने हमसे छुपाई थी अपनी उर्यानी,
वो जिसके वास्ते हमने बदन उतार दिया।
लिबास-ए-इश्क़ पहनने की ऐसी क्या ज़िद थी,
जो दोस्ती का हसीं पैरहन उतार दिया।
बिना बताए हमें इक ख़याल ने पहना,
बिना लिहाज़ किये दफ़’अतन उतार दिया।
हमें भी सर पे चढाया था फ़ितरतन सब ने,
हमें भी सब की तरह आदतन उतार दिया।
हर एक लाश हमें बे-कफ़न नज़र आई,
हमारी लाश से हमने कफ़न उतार दिया।
रिवाज-ए-इल्म-ओ-तमद्दुन का कुछ ख़याल भी कर।
मुझे जवाब भी दे मुझसे कुछ सवाल भी कर।
ज़रा वुसूल भी कर मुझ पे जो लुटाया है,
मुझे ख़रीद लिया है तो इस्तेमाल भी कर।
तेरे हुनर का है ये इम्तिहान संग-तराश,
मुझे मिसाल भी कर और बे-मिसाल भी कर।
ये इक कमाल ही बाक़ी है आख़िरी तुझ पर,
लगे कमाल तुझे ऐसा इक कमाल भी कर।
जब धूप ने बदन को सुनाया कि मैं भी हूँ।
साये ने बाहर आ के बताया कि मैं भी हूँ।
पूछा किसी ने दिल का सताया है और कौन?
मैंने भी अपना हाथ उठाया कि मैं भी हूँ।
सोचा कोई नहीं मेरा भगवान के सिवा,
फिर एक दिन समझ में ये आया कि मैं भी हूँ।
आँखों में उसकी दूर से दुनिया दिखाई दी,
उसने क़रीब आ के दिखाया कि मैं भी हूँ।
हर कोई इस जहाँ में अना का मरीज़ है,
‘हर कोई’ जब कहा तो ये पाया कि मैं भी हूँ।
हर बार आदमी ने किया ‘मैं ही हूँ’ का शोर।
हर बार वक़्त ने ये सिखाया कि ‘मैं भी हूँ’।
अजल के ज़ाविए सब ज़िंदगी से निकले हैं।
न जाने कितने ही ग़म इक ख़ुशी से निकले हैं।
कमाल ये नहीं निकले हैं रोकने पर भी,
कमाल ये है कि आँसू हँसी से निकले हैं।
लगा था दर्द सभी दुश्मनी से निकलेंगे,
मगर जो निकले वो सब दोस्ती से निकले हैं।
इसी लिये है मुझे कोफ़्त आशनाई से,
मैं जानता था जिन्हें अजनबी से निकले हैं।
कभी कभी तो ये लगता है फ़ुर्सतों के पल,
मेरी घड़ी के सिवा हर घड़ी से निकले हैं।
भरे हैं ज़ख़्म सभी मरहम-ए-मोहब्बत से,
निशान-ए-ज़ख़्म भी सारे इसी से निकले हैं।
सवाल ये है कि क्यूँ कर ‘नवा’ हुए घायल,
जवाब ये है कि दिल की गली से निकले हैं।
चश्म-ए-ज़रख़ेज़ का ही रोना है।
सब को आँखों में ख़्वाब बोना है।
इतने पानी में डूब जाएगा,
मन के आँगन को बस भिगोना है।
एक दुनिया है मंज़िल-ए-मक़्सूद,
एक दुनिया है जिसको ढोना है।
किसी तूफ़ाँ को ना-ख़ुदा कर के,
किसी कश्ती को पार होना है।
वो तसव्वुर भी है हक़ीक़त भी,
उसको पाना भी उसको खोना है।
ओढ़ना क्या है और बिछौना क्या,
नींद आने पे सब को सोना है।
दिल के दर पर किसी दस्तक की सदा आने से।
मैं भी कुछ देर निकल आया हूँ तह-ख़ाने से।
मेरी बस्ती पे मुसल्लत हुई तब ख़ामोशी,
जब कोई शोर उठा था मेरे वीराने से।
मुझे ग़ैरों में भी अपनो से मिले हैं कुछ लोग,
मेरे अपनो में भी कुछ लोग हैं बेगाने से।
किसी अनजान उजाले में उन्हें जब देखा,
मेरे पहचाने बदन भी लगे अंजाने से।
चाह कर भी कभी पाओगे न ऐसा कोई,
जो भी चाहा है वो मिल जाए जिसे पाने से।
बात ये सुन के बड़ी ख़ुश है मेरी बेचैनी,
रूह मरती नहीं है जिस्म के मर जाने से।
कुछ भी मिलना नहीं है और मुझे उलझा कर,
न ही मिलना है तुम्हें कुछ मुझे सुलझाने से।
ज़िंदगी का कोई इंधन है तो दीवानापन,
माँग लेना कभी मुझ से किसी दीवाने से।
प्यार की पीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
दिल की जागीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
फिर से मक़्सद कोई दरकार था कुछ रंगों को,
फिर से तस्वीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
बडी मुश्किल से मिला है मुझे कोरा काग़ज़,
ख़ुद को तहरीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
मैंने भी सीख लिया है अब असीरी का हुनर,
मैं भी ज़ंजीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
कब से होठो की कमाँ ले के ज़बाँ बैठी है,
और मैं तीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
जो मेरी ढाल बना जंग में उसकी ख़ातिर,
अब मैं शमशीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
मेरी तक़दीर बनाने के लिए बैठेगा,
जिसकी तक़दीर बनाने के लिए बैठा हूँ।
मेरे फ़र्दा में बड़ी दूर तलक बनती है
मेरी बीनाई से कोहरे की सड़क बनती है
पहले मिट्टी से बनाती है पसीना मेहनत
फिर पसीने से ही मिट्टी में महक बनती है
मोजज़ा हूँ मैं मुझे धूप में रख कर तो देख
मुझसे गुज़रे तो शुआओं से धनक बनती है
तेरी यादों से ही चलता है पता धड़कन का
तेरी यादों से ही धड़कन में कसक बनती है
चाहे सच्ची हो या झूठी कोई उम्मीद बना
इसी उम्मीद से जीने की ललक बनती है
मेरे चेहरे से ही बनता है तेरा चेहरा गर
मेरे शीशे में तेरी एक झलक बनती है
क़िस्मत देर नहीं करती है जिसको दरिया देने में।
अक्सर देर लगाती है वो उसको तिनका देने में।
अपनी मर्ज़ी से मत जाना तू खाई के किनारे तक,
वक़्त के हाथ नहीं काँपेंगे तुझको धक्का देने में।
तुझको तिजोरी में रखने का मुझको कोई शौक़ नहीं,
मुझको ख़र्च नहीं होना है तुझ पर पहरा देने में।
तूने कम माँगा है मुझको लेकिन मेरी भी तो सोच,
पूरा ख़त्म न हो जाऊँ मैं थोड़ा थोड़ा देने में।
सबको रस्ता मिल जाने दे उनकी मंज़िल का भगवन,
मुझको मंज़िल मिल जाने दे सबको रस्ता देने में।
ऐ जुनूँ इतना तो कर वक़्त अता कम-अज़-कम
कर सकूँ तुझ में इज़ाफ़े की दुआ कम-अज़-कम।
अपने रहने के लिए कुछ तो जगह कर मुझ में,
गर हटानी नहीं दुनिया तो घटा कम-अज़-कम।
कोई इल्ज़ाम तो साबित नहीं कर पाया तू ,
क्या सज़ा सोच के रक्खी थी बता कम-अज़-कम।
ग़म-गुसारी के फ़राइज़ तो समझ ले पहले,
तेरे चेहरे पे ख़ुशी है वो छुपा कम-अज़-कम।
तेरी तस्वीर बनाने में मदद कर उसकी,
उस मुसव्विर के लिए रंग बना कम-अज़-कम।
मैं अगर खेल हूँ तो खेलने की कोशिश कर,
मैं तमाशा हूँ तो फिर देखने आ कम-अज़-कम।
तेरा जाना हो अगर याद के मैख़ाने में,
तो मेरे नाम का इक जाम उठा कम-अज़-कम।
जाने कब से है तू मेहमान मेरी आँखों का,
तेरी आँखों को मेरे ख़्वाब दिखा कम-अज़-कम।
तुझको लड़ना तेरे दुश्मन ने सिखाया था ‘नवा’,
उसकी तुर्बत पे कुछ आँसू तो बहा कम-अज़-कम।
نمی ہو جس کی آنکھوں میں وہ بنجر ہو نہیں سکتا
جسے مٹی سے نسبت ہو وہ پتھر ہو نہیں سکتا
وہ ساحل ہو نہیں سکتا تلاطم کا ہو جس کو ڈر
جو ساحل سے نہ ٹکرائے سمندر ہو نہیں سکتا
نہ چھیڑے بادباں کو جو نہ ہی پتوار سے الجھے
کسی کشتی کو وہ طوفاں میسر ہو نہیں سکتا
وہ پھر اک لمس سے، خوشبو سے یا آہٹ سے ہوتا ہے
جو جادو صرف نظروں سے اجاگر ہو نہیں سکتا
سکوں ہو، پیار ہو یا پھر وہ چاہے خود خدا ہی ہو
اگر بھیتر نہیں ہے تو وہ باہر ہو نہیں سکتا
زمانے بھر کی لاشوں پر بھی ہو جائے کھڑی نفرت
پر اس کا قد محبت کے برابر ہو نہیں سکتا
جہاں پہ کانوں سے سننے کا فن اتار دیا
وہاں ہماری زباں نے سخن اتار دیا
نہ جانے اب کے یہ کیسی بہار آئی ہے
گلوں کے جسموں سے جس نے چمن اتار دیا
اسی نے ہم سے چھپائی تھی اپنی عریانی
وہ جس کے واسطے ہم نے بدن اتار دیا
لباسِ عشق پہننے کی ایسی کیا ضد تھی
جو دوستی کا حسیں پیرہن اتار دیا
بنا بتائے ہمیں اک خیال نے پہنا
بنا لحاظ کیے دفعتاً اتار دیا
ہمیں بھی سر پہ چڑھایا تھا فطرتاً سب نے
ہمیں بھی سب کی طرح عادتاً اتار دیا
ہر ایک لاش ہمیں بے کفن نظر آئی
ہماری لاش سے ہم نے کفن اتار دیا
رواجِ علم و تمدن کا کچھ خیال بھی کر
مجھے جواب بھی دے مجھ سے کچھ سوال بھی کر
ذرا وصول بھی کر مجھ پہ جو لٹایا ہے
مجھے خرید لیا ہے تو استعمال بھی کر
تیرے ہنر کا ہے یہ امتحان سنگ تراش
مجھے مثال بھی کر اور بے مثال بھی کر
یہ اک کمال ہی باقی ہے آخری تجھ پر
لگے کمال تجھے ایسا اک کمال بھی کر
جب دھوپ نے بدن کو سنایا کہ میں بھی ہوں
سایے نے باہر آ کے بتایا کہ میں بھی ہوں
پوچھا کسی نے دل کا ستایا ہے اور کون
میں نے بھی اپنا ہاتھ اٹھایا کہ میں بھی ہوں
سوچا کوئی نہیں میرا بھگوان کے سوا
پھر ایک دن سمجھ میں یہ آیا کہ میں بھی ہوں
آنکھوں میں اس کی دور سے دنیا دکھائی دی
اس نے قریب آ کے دکھایا کہ میں بھی ہوں
ہر کوئی اس جہاں میں انا کا مریض ہے
‘ہر کوئی’ جب کہا تو یہ پایا کہ میں بھی ہوں
ہر بار آدمی نے کیا ‘میں ہی ہوں’ کا شور
ہر بار وقت نے یہ سکھایا کہ میں ہی ہوں
دل میں مرے سکوں کا امکان کیا ہی ہو
شاعر ہوں زندگی مری آسان کیا ہی ہو
جب تک میں ان کہی کو کہی میں بدل نہ دوں
میرے کلام سے مری پہچان کیا ہی ہو
جو کھیل کھیلنے کو کھلاڑی نہیں کوئی
اس کھیل کے لیے کوئی میدان کیا ہی ہو
جس کے لیے ضمیر تجارت کی چیز ہے
اس شخص سے وضاحتِ ایمان کیا ہی ہو
جانے ہے فکر کیوں مجھے خوابوں کے شہر کی
جو بس نہیں سکا کبھی ویران کیا ہی ہو
بھگوان کیا ہی ہو کسی انسان سے الگ
انسان سے بڑا کوئی شیطان کیا ہی ہو
ازل کے زاویے سب زندگی سے نکلے ہیں
نہ جانے کتنے ہی غم اک خوشی سے نکلے ہیں
کمال یہ نہیں نکلے ہیں روکنے پر بھی
کمال یہ ہے کہ آنسو ہنسی سے نکلے ہیں
لگا تھا درد سبھی دشمنی سے نکلیں گے
مگر جو نکلے وہ سب دوستی سے نکلے ہیں
اسی لیے ہے مجھے کوفت آشنائی سے
میں جانتا تھا جنھیں اجنبی سے نکلے ہیں
کبھی کبھی تو یہ لگتا ہے فرصتوں کے پل
مری گھڑی کے سوا ہر گھڑی سے نکلے ہیں
بھرے ہیں زخم سبھی مرہمِ محبت سے
نشانِ زخم بھی سارے اسی سے نکلے ہیں
سوال یہ ہے کہ کیونکر ‘نوا’ ہوئے گھائل
جواب یہ ہے کہ دل کی گلی سے نکلے ہیں
چشمِ زرخیز کا ہی رونا ہے
سب کو آنکھوں میں خواب بونا ہے
اتنے پانی میں ڈوب جائے گا
من کے آنگن کو بس بھگونا ہے
ایک دنیا ہے منزلِ مقصود
ایک دنیا ہے جس کو ڈھونا ہے
کسی طوفاں کو ناخدا کرکے
کسی کشتی کو پار ہونا ہے
وہ تصور بھی ہے حقیقت بھی
اس کو پانا بھی اس کو کھونا ہے
اوڑھنا کیا ہے اور بچھونا کیا
نیند آنے پہ سب کو سونا ہے
چشمِ زرخیز کا ہی رونا ہے
سب کو آنکھوں میں خواب بونا ہے
اتنے پانی میں ڈوب جائے گا
من کے آنگن کو بس بھگونا ہے
ایک دنیا ہے منزلِ مقصود
ایک دنیا ہے جس کو ڈھونا ہے
کسی طوفاں کو ناخدا کرکے
کسی کشتی کو پار ہونا ہے
وہ تصور بھی ہے حقیقت بھی
اس کو پانا بھی اس کو کھونا ہے
اوڑھنا کیا ہے اور بچھونا کیا
نیند آنے پہ سب کو سونا ہے
دل کے در پر کسی دستک کی صدا آنے سے
میں بھی کچھ دیر نکل آیا ہوں تہہ خانے سے
میری بستی پہ مسلط ہوئی تب خاموشی
جب کوئی شور اٹھا تھا مرے ویرانے سے
مجھے غیروں میں بھی اپنوں سے ملے ہیں کچھ لوگ
میرے اپنوں میں بھی کچھ لوگ ہیں بیگانے سے
کسی انجان اجالے میں انھیں جب دیکھا
میرے پہچانے بدن بھی لگے انجانے سے
چاہ کر بھی کبھی پاؤگے نہ ایسا کوئی
جو بھی چاہا ہے وہ مل جائے جسے پانے سے
بات یہ سن کے بڑی خوش ہے میری بے چینی
روح مرتی نہیں ہے جسم کے مر جانے سے
کچھ بھی ملنا نہیں ہے اور مجھے الجھا کر
نہ ہی ملنا ہے تمہیں کچھ مجھے سلجھانے سے
زندگی کا کوئی ایندھن ہے تو دیوانہ پن
مانگ لینا کبھی مجھ کو کسی دیوانے سے
پیار کی پیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
دل کی جاگیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
پھر سے مقصد کوئی درکار تھا کچھ رنگوں کا
پھر سے تصویر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
بڑی مشکل سے ملا ہے مجھے کورا کاغذ
خود کو تحریر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
میں نے بھی سیکھ لیا ہے اب اسیری کا ہنر
میں بھی زنجیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
کب سے ہونٹوں کی کماں لے کے زباں بیٹھی ہے
اور میں تیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
جو مری ڈھال بنا جنگ میں اس کی خاطر
اب میں شمشیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
میری تقدیر بنانے کے لیے بیٹھے گا
جس کی تقدیر بنانے کے لیے بیٹھا ہوں
میرے فردا میں بڑی دور تلک بنتی ہے
میری بینائی سے کہرے کی سڑک بنتی ہے
پہلے مٹی سے بناتی ہے پسینہ محنت
پھر پسینے سے ہی مٹی میں مہک بنتی ہے
معجزہ ہوں میں مجھے دھوپ میں رکھ کر تو دیکھ
مجھ سے گزرے تو شعاؤں سے دھنک بنتی ہے
تیری یادوں سے ہی چلتا ہے پتہ دھڑکن کا
تیری یادوں سے ہی دھڑکن میں کسک بنتی ہے
چاہے سچی ہو یا جھوٹی کوئی امید بنا
اسی امید سے جینے کی للک بنتی ہے
میرے چہرے سے ہی بنتا ہے ترا چہرہ گر
میرے شیشے میں تری ایک جھلک بنتی ہے
قسمت دیر نہیں کرتی ہے جن کو دریا دینے میں
اکثر دیر لگاتی ہے وہ اس کو تنکا دینے میں
اپنی مرضی سے مت جانا تو کھائی کے کنارے تک
وقت کے ہاتھ نہیں کاپیں گے تجھ کو دھکا دینے میں
تجھ کو تجوری میں رکھنے کا مجھ کو کوئی شوق نہیں
مجھ کو خرچ نہیں ہونا ہے تجھ پر پہرا دینے میں
تو نے کم مانگا ہے مجھ کو لیکن میری بھی تو سوچ
پورا ختم نہ ہو جاؤں میں تھوڑا تھوڑا دینے میں
سب کو رستہ مل جانے دے ان کی منزل کا بھگوان
مجھ کو منزل مل جانے دے سب کو رستہ دینے میں
اے جنوں اتنا تو کر وقت عطا کم از کم
کر سکوں تجھ میں اضافے کی دعا کم از کم
اپنے رہنے کے لیے کچھ تو جگہ کر مجھ میں
گر ہٹانی نہیں دنیا تو گھٹا کم از کم
کوئی الزام تو ثابت نہیں کر پایا تو
کیا سزا سوچ کے رکھی تھی بتا کم از کم
غم گساری کے فرائض تو سمجھ لے پہلے
تیرے چہرے پہ خوشی ہے وہ چھپا کم از کم
تیری تصویر بنانے میں مدد کر اس کی
اس مصور کے لیے رنگ بنا کم از کم
میں اگر کھیل ہوں تو کھیلنے کی کوشش کر
میں تماشا ہوں تو پھر دیکھنے آ کم از کم
تیرا جانا ہو اگر یاد کے میخانے میں
تو میرے نام کا ایک جام اٹھا کم از کم
جانے کب سے ہے تو مہمان میری آنکھوں کا
تیری آنکھوں کو مِرے خواب دکھا کم از کم
تجھ کو لڑنا ترے دشمن نے سکھایا تھا ‘نوا’
اس کی تربت پہ کچھ آنسو تو بہا کم از کم